परसों सायंकाल मैं गुरुग्राम में गया।अपने मेला प्रमुख सचिंद्र बरियार जी की श्रीमती जी वहां इलाज हेतु आई है। मैं हालचाल लेने गया।
बड़ीयार जी से सारी बातें पूछने पर वह बोले “सतीश जी! मैंने जीवन भर में इस संगठन में, स्वदेशी में रहते ही सब कुछ कमाया है।देखो न!जब बनारस में श्रीमती बीमार हुई तो वहां पर रात्री में ही स्वदेशी के कार्यकर्ता आ गए। रात को 3:00 बजे एंबुलेंस में सब व्यवस्था उन्होंने की। जब गुरुग्राम में लेकर आए, तो यहां पर भी यही बात थी। परसों उनको खून चढ़ाने की आवश्यकता हुई। 9 बोतल खून चाहिए था।”
“मैंने अपने परिवार के लोगों को कहा कि तैयार हो जाओ।” किंतु देखते ही देखते 25..26 कार्यकर्ता आ गए।और मेरा तो अवश्य लीजिए ऐसा कह रहे थे। मेरे परिवार के लोग भी दंग रह गए।”
वे आगे बोले “न काशी मेरा कार्यक्षेत्र रहा और गुरुग्राम तो कभी रहा ही नहीं। मैं किसी को यहां जानता भी नहीं। किंतु यहां मुझे बिल्कुल नहीं लग रहा कि मैं बोकारो, झारखंड से इतनी दूर यहां गुरुग्राम में आया हूं।सब व्यवस्थाएं विक्रम जी के नेतृत्व में स्वदेशी के कार्यकर्ता कर रहे हैं।”
मेरी जीवन भर की कमाई और पुण्यकर्म मेरा समर्पण है।जो मुझे और मेरे परिवार को सब जगह संभाल लेता है।वह थोड़े भावुक हो उठे।
मैं भी सोच में था कि यह अपने संगठन की संस्कृति ऐसी ही विकसित हुई है की सब जगह पर कार्यकर्ता अपने परिवार भाव से ही जुट जाते हैं। लेकिन सब जगह इतना संगठन भाव, परिवार भाव रहता है क्या…हाँ अवश्य! मेरे अन्दर से विश्वास जगा। जय स्वदेशी…जय भारत~सतीश