

समुद्र के किनारे कश्मीरी लाल जी व मैं स्वयं
कल कश्मीरी लाल जी के साथ कन्याकुमारी जाना हुआ। मदुरई में स्वदेशी का सम्मेलन समाप्त करने के बाद स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक पर जाकर कुछ नई ऊर्जा प्राप्त करने का विचार था। वहां पर जाने के बाद हम आपस में चर्चा कर रहे थे,की 1893 में,जब हवाई जहाज थे ही नहीं,समुद्री जहाज से 3 महीने लगते थे अमेरिका पहुंचने में, उस समय स्वामी विवेकानंद द्वारा वहां जाने का विचार करना,व उसमें सफल होना, यह कैसे संभव हुआ?
क्योंकि भारत उस समय पराधीन था। स्वामी जी 32 वर्ष के युवा थे। अमेरिका जाकर दुनिया की सबसे बड़ी विद्वानों की सभा को संबोधित करने का विचार?!
कितनी बड़ी बात थी?कैसे सफल हुए स्वामीजी?
इसी तरीके से जब संघ के पूर्व सरकार्यवाह एकनाथ रानाडे जी ने तमिलनाडु के इस आखरी छोर पर शिला स्मारक खड़ा करने का विचार किया(संगठन की योजना से),तो सफलता कैसे मिली?
क्योंकि 1960- 62 में सारे तमिलनाडु में हिंदू,हिंदी विरोधी आंदोलन चल रहे थे। कन्याकुमारी के आसपास ईसाइयों की ही बस्तियां हैं।वहां जाकर भारत ही नहीं,दुनिया का एक श्रेष्ठ स्मारक निर्माण करना,वहां से प्रचारक निकालना, उसके लिए आवश्यकता से भी अधिक350 सांसदों के हस्ताक्षर करवा लेना, जबकि अपने तो बहुत कम ही थे।
किंतु तभी,जब हम लौट रहे थे,तो स्वामी विवेकानंद जी का ही एक वाक्य पड़ा “किसी एक विचार को पूर्ण समर्पित हो जाओ! उसके लिए पूरा तन-मन लगा दो। वह विचार और तुम एक हो जाओ तो सफलता अवश्य मिलगी ही।”
हमने ध्यान में लिया कि इन दोनों महापुरुषों की सफलता का राज, यही श्रेष्ठ विचार व पूर्ण समर्पण ही है।
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