स्वदेशी का मतलब अपने देश में बनी हुई वस्तुओं और सेवाओं के केवल प्रयोग से नहीं है, बल्कि स्वदेशी देश प्रेम की अभिवयक्ति का एक मार्ग है। स्वदेशी एक वैचारिक आंदोलन का नाम भी है।
स्वतंत्रता से पहले स्वदेशी आंदोलन का प्रयोग अंग्रेज़ों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए महात्मा गाँधी ने एक हथियार के रूप में प्रयोग किया तथा स्वतंत्रता के बाद दो महापुरुषों पूज्य स्व. श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी एवं श्री दीनदयाल जी उपाध्याय ने इसको और धार दी ताकि भारत की आंतरिक आर्थिक शक्ति सबल हो, भारत एक आर्थिक रूप से सबल एवं समृद्ध राष्ट्र के रूप में दुनिया का मार्गदर्शन करे और मानवता कल्याण का एवं वसुधैव कुटुम्बकम का मार्ग प्रशस्त करे।
हमारा मुख्य उद्देश्य हमारे देश के हर व्यक्ति, समुदाय, जाति-धर्म को भारत देश में बनने वाली स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग एवं उनसे उन्ही को होने वाले लाभ के प्रति जागरूक करना है। एक समय में सोने की चिड़िया कहा जाने वाले भारत देश आज विदेशी वस्तुओं के प्रयोग तले इतना दब चुका है कि इसके भार को शब्दों में ब्यान नहीं किया जा सकता।
सुई से लेकर हवाई जहाज़ तक बनाने वाला हमारा भारत देश आज स्वयं की उत्पादन क्षमता को भूलकर विदेशी वस्तुओं के भरोसे जी रहा है। हमारे भारत देश में किसी चीज़ की कमी नहीं है या ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका उत्पादन एवं प्रयोग हम न जानते हो। आज आज़ादी के 73 वर्षों के पश्चात भी भारत की गिनती विकासशील देशों में की जाती है, जिसका केवल एक ही मुख्य कारण है- विदेशी वस्तुओं का प्रयोग एवं उन पर ज्यादा निर्भर होना। हम उन पर निर्भर है क्योंकि बचपन से लेकर आज तक हमारी मानसिकता ही ऐसी बना दी जाती है कि विदेशी वस्तुऐं ही ज्यादा बेहतर होती हैं।
हमारे ग्रन्थ, शास्त्र, वेद, पुराण सभी इस बात के गवाह हैं की हम से ज्यादा उन्नति न किसी ने की है न कोई कर सकता है। लेकिन ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपने बच्चों को हरे राम, हरे कृष्ण की मधुर धुन्न की बजाये…twinkle twinkle little star सुनाना ज्यादा पसंद करते हैं..!!